NitiNil Life

Friday, January 25, 2013

दो पैसे का मेला...!

यह घटना सन् 1942 की है। इलाहाबाद में कुंभ की धूम मची हुई थी। उन दिनों भारत के वायसराय लार्ड लिनलिथगो थे। वह भी मेला देखने के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय जी के साथ पहुंचे। उन्होंने देखा कि कुंभ में देश के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न जातियों और समूहों के लोग विभिन्न वेषभूषाओं में सजकर आए हुए हैं। यह सब देखकर वायसराय मालवीय जी से बोले, 'इस मेले में लोगों को इकट्ठा करने के लिए प्रचार-प्रसार पर काफी रुपया खर्च होता होगा। कुछ अनुमान है कि कितना रुपया लग जाता है?' वायसराय की बात सुनकर मालवीय जी मुस्कराते हुए बोले, 'मात्र दो पैसे।' यह सुनकर वायसराय दंग रह गए और बोले, 'क्या कहा आपने? मात्र दो पैसे? भला यह कैसे संभव है? भला दो पैसे से यहां इतनी भीड़ कैसे जुटाई जा सकती है?' वायसराय की बात सुनकर मालवीय जी ने अपने पास से पंचांग निकाला और उसे दिखाते हुए बोले, 'इस दो पैसे के पंचाग से देश भर के श्रद्धालु यह पता लगते ही कि कौन सा पर्व कब है, स्वयं श्रद्धा के वशीभूत होकर तीर्थयात्रा को निकल पड़ते हैं। धार्मिक संस्थाओं व सभाओं को कभी भी न प्रचार की आवश्यकता पड़ती है और न ही इन लोगों को निमंत्रण भेजने की।' मालवीय जी की बात सुनकर वायसराय को हैरानी हुई। उन्होंने कहा, 'वाकई यह तो बड़े अचरज की बात है।' मालवीय जी उनकी बात का जवाब देते हुए बोले, 'अचरज की बात नहीं जनाब, यह मेला श्रद्धालुओं का अनूठा संगम है। यहां सब अपने आप खिंचे चले आते हैं।' वायसराय श्रद्धालुओं के प्रति नतमस्तक हो गए।

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